पत्रिका मिली। देखकर पहली प्रतिक्रिया यही कि आपने छात्रों, बच्चों, और आम पाठकों को सीधे साहित्य , कला, संस्कृति से जोड़ने का जो रास्ता दिखाया है उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। आप जानते हैं कि एक लम्बे समय से शिक्षा संस्थानों, स्कूलों-कालेजों में छात्रों को पार्टियों में बांटकर देश के मूढ़ राजनीतिज्ञ चुनाव के तरह किसी तरह लडने-भिडने और देश को टुकडों में बांटने का काम कर रहे हैं। शिक्षा में राजनीति का यह कलंक समूचे देश को कलंकित ही नहीं, टुकडों में बांटता चला जा रहा है। जो देश के लिए घातक है। यदि शिक्षा संस्थानों, स्कूल-कालेजो से निकलने वाली पत्रिकाओं द्वारा छात्रों, बच्चों को सीधे कला, साहित्य संस्कृति और अन्य रचनात्मकता से जोड़ा जाए तो जैसा कि आपने कर दिखाया है तो वह सबके लिए सुखद और विकास और उज्जवल भविष्य का कारण बन सकता है।
श्री बल्लभ डोभाल की कहानी ‘कलंक कथा‘ (जनवरी 18) के संदर्भ में उल्लेखनीय है कि लिखना बहुत कठिन काम है, किन्तु लिखने के बारे में लिखना और भी कठिन काम है, यह जानते हुए भी इस कहानी पर लिखने का साहस इसलिए कर रह हूँ क्योंकि इसे पढने के बाद कुछ लिखने की इच्छा होती है।
इस समय जब भारतीय भाषाओं के साहित्य पर मोटा प्रश्न-चिह्न लगाया जा रहा हैए ऐसी कहानी पढना समुद्र पर घूमते हुए मोती मिल जाने जैसा अनुभव देता है। बल्लभ डोभाल हिन्दी साहित्य के अद्भुत शैलीकार हैं वे बडे लेखक हैं। उनका लेखन उनके जीने की ही एक खूबसूरत अदा है मैने हिन्दी क अतिरिक्त अन्य भाषाओं के बहुत से लेखकों (भारतीय और विदेशी) की कहानियां पढी है लेकिन यह कहानी अपने तेवरों में अपने समय के साहित्य में अलग दिखाई देती है। पैसे को ही बाप मानने वाली सभ्यता, नीचे वाले को लात मारकर, उपर वाले के पैर पकड़कर सीढी चढ़ने की सभ्यता को हिकारत की नजर से देखने का विद्रोह इस कहानी का सबसे बड़ा आकर्षण है।
कहानी में कोई छद्म कालाकारी नहीं है, कोई कृत्रिम भाषा, फाल्तू शब्द क्रीडा, पांडित्य-प्रदर्शन आदि नहीं हैं। यह सरल सुबोध शैली में कही गई कहानी है जिसमे जिंदगी का अनुभव है। ऐसा अनुभव जो पाठक का भी अपना अनुभव बन जाता है और जिसे आसानी से मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन इस धडकते हुए जीवन को पकड़ना अन्य भारतीय लेखकों के लिए असंभव ही दिखायी देता है। काश हमाने कहानीकार एक बार इस कहानी को पढते, तब उनकी कहानियों का वह हश्र नहीं होता कि कई बार पढने की कोशिश के बाद भी शुरू से अंत तक पूरा न पढा जा सके।
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